माँ की दास्तां एक जुवान में

 " माँ" दास्ताँ के मायने जब और बढ़ जाते हैं जब हम शहर छोड़कर बाहर सर्विस या अन्य उद्देश्य के लिए जाते हैं तब जरूर हमारे मन में यह सवाल जागता है कि मेरी माँ अनपढ़ तो है लेकिन वह हमारे दिलों में एक पाठ ऐसा लिख देती हैं कि जब हम कलम चलाते हैं तब उनकी याद आ जाती है जैसा अग्रलिखित गद्यांश में दर्शाया गया है  मेरी माँ अनपढ़ है लेकिन अपने आँसुओ की कलम से वह एक ऐसा पाठ लिखती हैं कि उसको पढ़ना बहुत आसान नहीँ होता लेकिन दिल से समझने पर इतना कठिन भी नहीं होता। कि इसको समझ न सकें।एक माँ के आँसुओ की दास्तां आप के सामने पेश की। जो समझे वही सिकन्दर है वरना बन्दे तो सभी हैं।
                                                              सुधाकर राव

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